साक्षात्कार: प्रदीप लिंग्वांण

प्रदीप लिंगवाल

फिल्म ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ में अपने विद्या बालन के किरदार जाह्नवी को गुड मोर्निंग मुंबई बोलते हुए तो सुना ही होगा। फिल्म में विद्या बालन ने एक रेडियो जॉकी (रेडियो उद्घोषक) का किरदार निभाया था। उस फिल्म में जाह्नवी लाखों लोगों को अपनी आवाज के जादू से बाँध कर रखती थी। वह तो खैर फिल्म थी, लेकिन असल जिंदगी में भी जो रेडियो उद्घोषक होते हैं उनसे भी यह अपेक्षित होता है कि वह अपनी आवाज से कुछ ऐसा माहौल बना सकें कि लोग उन्हें सुनने के लिए बेकरार हो जायें। अब वो जमाना बीत गया जब रेडियो पर सीधे सूचना दे दी जाती थी। वर्तमान युग में, रेडियो सिर्फ सूचना का माध्यम नहीं रह गया है, बल्कि अब इसमें मनोरंजन भी शुमार हो गया है।

एक रेडियो उद्घोषक का काम सिर्फ रेडियो शो को प्रस्तुत करना ही नहीं होता बल्कि उनके कार्यक्षेत्र में म्यूजिक प्रोग्रामिंग, पटकथा लेखन, रेडियो एडवरटाइजिंग करने से लेकर ऑडियो मैगजीन व डाक्यूमेंट्री को पेश करना भी आता है।

सामाजिक गतिविधियों के साथ साथ सांस्कृतिक गतिविधियों की जानकारी भी रेडियो जॉकी को बराबर रखनी पड़ती है। अपने शो के माध्यम किसी हस्ती को आपके समक्ष प्रस्तुत करना, उनकी ज़िंदगी से जुड़े हरेक पहलुओं को उनकी जुबानी आप तक पहुँचाना कोई आसान काम नहीं है। खुद पर्दे के पीछे होकर दूसरों को पर्दे पर रखने वाले रेडियो जॉकी वाकई में एक सच्चे वक्ता होते हैं।

आज चलचित्र सेंट्रल भी एक ऐसे ही रेडियो उद्घोषक को आप सबके सामने प्रस्तुत करने जा रहा है। रेडियो खुशी 90.4 एफ़. एम. मसूरी देहरादून उत्तराखंड के उद्घोषक प्रदीप लिंग्वांण से आज हम बात करेंगे। साथ ही उनके सफ़र से जुड़ी कुछ रोचक बातों को आपके समक्ष प्रस्तुत करेंगे। चलिए शुरू करते हैं बातों के इस सिलसिले को।

प्रश्न: प्रदीप बहुत बहुत स्वागत है आपका चलचित्र सेंट्रल में। सबसे सबका परिचय पूछने वाले एक रेडियो जॉकी से आज मैं यानी सुजाता आपसे आपका परिचय जानना चाहती हूँ। सबसे पहले आप अपने विषय में कुछ बताइए। आप कहाँ से हैं? आपकी पढ़ाई लिखाई कहाँ कहाँ संपन्न हुई? और वर्तमान में आप कहाँ रहते हैं?

उत्तर: सिमान्या आपको! और बहुत बड़ा वाला धन्यखाल आपका कि आपने हमें अपने इस कार्यक्रम में न्यौता दिया। और सही बात है आमतौर पर सबसे सवाल करने वाला आज आपके सवालों के जवाब देगा, जो कि बड़े गर्व की बात है। हमने सबकी सुनी आज हमारी भी कोई सुन रहा है।

परिचय या सफर बहुत लम्बा है फिर भी सीमित शब्दों में समझे तो मैं टिहरी जिले की बढियार गढ़ (अस्सी लोस्तु की थात) पट्टी के भीतर आने वाले एक गावँ रिगोली मल्ली का निवासी हूँ। और वर्तमान समय में भी मैं वही का हूँ फिलहाल कोई प्लाट अपने नाम पर अलाट नही किया है। रही बात काम की तो उसके लिये मैं कहूँगा कि मेरी जॉब मसूरी में है। मैं इस वक्त मसूरी में रैबासी हूँ। पढ़ाई लिखाई 10 वी तक गाँव के ही विद्यालय में हुई जो अब इन्टर कॉलेज बन चुका है पर हमारे वक्त में 10वी तक ही था, बाकी 12वी कक्षा तक की पढ़ाई राजकीय इंटर कॉलेज आच्छरीखुंट लोस्तु में हुई है।

प्रश्न: प्रदीप दिल्ली यूनिवर्सिटी से हिस्ट्री और पॉलिटिकल साइंस में बी. ए. , एम. ए.  और एम. फिल करने के साथ आप मुंबई में शैफ भी रह चुके हैं। फिर अचानक रेडियो जॉकी बनना ये कैसे संभव हुआ?

उत्तर: उस दौर के (2004/05) उत्तराखंड का एक नियम था जब माँ पिता कहते 12वी कर ली अब पैरों पर खड़े हो जाओ। एक मिडिल क्लास फैमिली ऐसी ही होती है और तब के दौर में फ़ौज या होटल ये दो ही सबसे बेहतरीन ऑप्शन रहते थे। फ़ौज में नहीं जा सका क्योंकि शरीरिक वृद्धि कारण है, तो होटल का ऑप्शन चुना गया।

12th करने के बाद महानगरी मुम्बई की तरफ प्रस्थान किया गया। शायद 24 अप्रैल 2008 का समय रहा होगा। वहाँ की ऊँची बिल्डिंगों में पहली बार एक खालिस गढ़वाली खुद को खोज रहा था। जिसने दिल्ली की मेट्रो की नजाकत देखी थी वो मुम्बई लोकल को भी अपना चुका था।

खैर, वक्त ने पलटी मारी 26/11 के आतंकी हमले के गवाह बने (काफी करीब से देखा और महसूस किया था) और फिर सब ठीक-ठाक ही चल रहा था मैं तन्दूर डिपार्टमेंट का (2nd comii) शेफ बन चुका था मुम्बई अंधेरी वेस्ट के एक होटल में जॉब चल रही थी अचानक तबियत बिगड़ी और सब निलबट्टे सन्नाटा। डॉक्टर बोले तन्दूर की आग में 2 महीने और काम किये तो निबट जाओगे। तब मायानगरी मुम्बई से वापसी हुई।

मैं पहला बंदा होऊंगा जिसे मुम्बई की हवा नही लगी।

उसके बाद सन 2010 में मैं जो शिरडी के सांसद थे उनका पर्सनल केयर असिस्टेंट बन गया, वहीं से मुझे मौका मिला दिल्ली को अपनाने का और दिल्ली की सर्दी गर्मी दोनो मैंने पचा ली। वहाँ से आगे की पढाई की। फिर 2014 में सांसद महोदय चुनाव हारे फिर मैं बेरोजगार हो गया। पर लिखना नही छूटा तब सिर्फ फेसबुक का बोलबाला था अब तो व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी है।

2014 में मेरे बड़े भाई साहब ने मेरे लिखने का जुनून देख कर मुझे आवाज टेस्टिंग के लिए मसूरी बुलाया। तब मैंने पहली बार किसी रेडियो में कदम रखा था, पहली बार किसी दरवाजे पर ON AIR लिखा देखा था। और हाँ ! तब ही मुझे पता लगा कि देहरादून में विक्रम किसी लड़के का नाम नहीं बल्कि उस तिपहिया का नाम है जिसे दिल्ली में टेम्पो या ग्रामीण सेवा कहते है।

खैर, रेडियो से जुड़ने की शुरुआत 2014 में हुई थी। फिर बीच में किसी निजी कारण से थोड़े वक्त के लिये दूरी बनाई और फिर वापसी हुई। तब से लगातार 4 साल बीत चुके हैं पर बाते खत्म ही नही हो रही।

काफी लंबा सफ़र तय किया आपने।

प्रश्न: हम सब जानते हैं कि रेडियो जॉकी बनना आसान नहीं होता। उसके लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है तो आपके लिए ये सफ़र कितना आसान रहा? और आपके इस सफ़र की शुरुवात कब, कैसे और कहाँ से शुरू हुई?

उत्तर: आपको डिग्री या डिप्लोमा कहीं से भी मिल सकता है, पर असल में एक रेडियो जॉकी होता क्या है वो तब समझ में आता है जब आप एक बन्द कमरे में अकेले एक निर्जीव माइक को सजीव बनाते है। वो जो ऐसी में आने वाला पसीना है न वही है असली प्रेक्टिकल या असली परीक्षा जो किसी डिग्री में लिखे मार्क्स को भी धता बताती है।

जहाँ तक रही मेरी बात तो मैंने मास कॉम नही किया है और 2014 में जब मैं आवाज की टेस्टिंग के लिए आया था तो पहली बार किसी स्टूडियो में कदम रखा था, वरना दिल्ली में दूर से ही आकाशवाणी भवन देखा था। मैं जिस रेडियो स्टेशन (90.4mhz रेडियो खुशी) में हूँ वो एक सामुदायिक रेडियो स्टेशन है जिसका दायरा कम और जिम्मेदारी बहुत ज्यादा है। मुझे शायद हिंदी शो के लिए बुलाया गया था पर दिल्ली की हवा में घुली खालिस हरियाणवी ने बात बिगाड़ दी फिर गढ़वाली में रिकॉर्डिंग दी तो हाँ हुई, पर आगे रेडियो पर बोलते कैसे है उसके लिए भयंकर मेहनत करनी पड़ी। उस वक्त तत्कालीन रेडियो खुशी के आर जे थे आशीष कैंतुरा, रवि कैंतुरा, KT किरन और साउंड एडिटर थे मदन लिंग्वाण जी, आज शब्द मेरे है पर बोलना उन्होंने सिखाया।

एक बात बहुत सटीक कही आपने कि डिग्री डिप्लोमा आपका शिक्षित होना कभी तय नहीं करता है। आगे मंजिल तक पहुँचने के लिए एक सच्चा हाथ सिर पर और कदमों में रफ्तार, मन में धेर्य और जुनून सब आपका होना चाहिए।

प्रश्न: प्रदीप अक्सर हम लोग रेडियो जॉकी बनने के लिए हिन्दी या इंग्लिश भाषा को ही प्राथमिकता देते हैं। इसके पीछे कहीं ना कहीं इस लाइन में मिलने वाले करियर स्कोप की लालसा भी होती है। आपने इस विचारधारा से परे हटकर क्षेत्रीय पहाड़ी भाषा में रेडियो होस्ट करने का फैसला किया। क्या इसके पीछे आपका कोई प्रमुख कारण था? या आपकी पहली पसंद ही पहाड़ी भाषा थी?

उत्तर: देखिये अगर आपको सिर्फ वॉइस ओवर आर्टिस्ट्स बनना है तो आप हिंदी इंग्लिश ट्राय कर सकते है पर मजा अपनी 112 बोलियों को एक बोली में पिरोकर सारे उत्तराखंड के रैबासियो को समझाने में है। शुरवात में मैं भी हिंदी आर जे बनने का इच्छुक था पर अख्खड़ श्रीनगरिया बोली की वजह से हिंदी में जो शुद्ध गढ़वाली टोन आती है उसकी वजह से दिक्कते आ रही थी, बाद में गढ़वाली शो ने इस कमी को पूरा किया। ये गर्व की बात है कि मेरी बोली के अंदाज़ को 2014 के पहले दिन से श्रोताओं ने पसन्द किया। और तब से एक शो रंगीलो गढ़वाल मेरो छबिलो कुमाऊँ, जिसमें कई आर जे आये गए पर वो टिका रहा, को मैं होस्ट कर रहा हूँ। और उसी नाम की वजह से आज मुझे पहचान मिली।

प्रश्न: प्रदीप बचपन से ही हम सबका कोई ना कोई सपना जरूर होता है। जिसे हम लोग आगे चलकर पूरा करने की होड़ में लग जाते हैं। कभी सफलता हाथ लगती है तो कभी निराशा। क्या आपका ऐसा कोई सपना रहा है? जिसे पूरा करने के लिए आपने जी जान लगाई हो। या आप पहले से ही रेडियो जॉकी बनना चाहते थे? आपके सपने को पूरा करने में आप कहाँ तक कामयाब रहे हैं?

उत्तर: ये सब अचानक हुआ है। हम राह तय करते है पर राह में अड़चन पर या तो मुकाबला करते है या फिर राह बदलते है। मैंने राह बदली और राहें बदलते वक्त का अनुभव आज खूब काम आता है। निराशा किसी काम में नहीं मिली। जिस काम को भी शुरू किया वो मंजिल तक जरूर पहुँचा है।
मेरा सपना था फ़ौज का लेकिन वो इस जन्म में पूरा होने से रहा, कद और अब उम्र दोनों ने धोखा दे दिया। रही बात किसी सपने को पूरा करने की धुन की, तो मैंने रेडियो पर नन्दा देवी से जुड़े हर घटना क्रम को एक रेडियो सीरियल की तरह शुरुआत से अंतिम पड़ाव तक पहुचाने के लिए जो सब चीजें जोड़ी थी उन्हें सोलह भागों में रेडियो पर प्रस्तुत किया है। ये वो सपना था जो सन 2000 में नरेंद्र सिंह नेगी जी की एक कैसेट (श्री नंदादेवी राजजात, 2000) से शुरू हुआ था, तब से एक कसक थी ये सारी इकठ्ठा की जानकारी को एक सूत्र में प्रस्तुत करना, जो कि 2018 में पूरा हुआ।

प्रश्न: आप चार सालों से लगातार रेडियो खुशी 90.4 एफ़ एम के शो “रंगिलो गढ़वाल मेरो छबिलो कुमाऊँ” होस्ट कर रहे हैं। इस कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य क्या है? इस बारे में कुछ बताइए।

उत्तर: ये मस्त सवाल है। इस शो की शुरुआत 2010 में आशीष कैंतुरा ने की थी। फिर इसे रवि कैंतुरा (वर्तमान में एबीपी गंगा में रिपोर्टर) को सौंपा गया। उसके बाद रवि हिंदी शो में गए तो इस शो की कमान मुझे दी गयी। पहले इस शो का नाम ‘हमारू प्यारू पहाड़‘ था, फिर मैंने इस शो का नाम बदला और “हमारू प्यारू पहाड़” के शब्दो को पलट कर ‘रंगिलो गढ़वाल मेरो छबिलो कुमाऊँ’ किया। तब से लेकर आज तक ये शो लगातार चल रहा है। हालांकि बीच में मेरी अनुपस्थिति में अन्य रेडियो उद्घोषकों ने इस गढ़वाली शो का नाम बदला पर जब मेरी वापसी हुई तो तब से यही नाम है।

इस कार्यक्रम का उद्देश्य अत्यंत विस्तृत है फिर भी संक्षेप में कहा जाय तो सिर्फ उत्तराखंड के गानें बजाना इस शो का उदेश्य नही है, इस शो का मूल मन्त्र है वो पहाड़ बताना जो कस्बों में सिर्फ “बल” लगाकर सुनाया जाता है। इस वजह से इस शो से वो लोग जुड़े हैं, जो सुदूर पहाड़ से अलग होने के बाद भी उस बोली से जुड़ाव उस बोली में उकेरे हर विषय पर सुनना और कहना चाहते हैं। इस शो का उदेश्य नई पीढ़ी को सिर्फ बोली के गीत सुनाना नही है बल्कि हर शब्द का अर्थ बताना है जो वो कस्बों में अपने परिवार के साथ नही जान पाए। इस शो में सिर्फ पहाड़ या पलायन की बात नही होती बल्कि अब तो बेबाकी से उत्तराखंड के हर मुद्दे पर चर्चा की जाती है। सबसे खास बात ये है कि जनता पसन्द भी करती है।

प्रश्न: आप शो होस्ट करने के आलवा लिखने का शौक भी रखते हैं। अब तक आपके तीन पहाड़ी गीत आ चुके हैं और एक कविता भी लिख चुके हैं। गीत संगीत की भी आप अच्छी समझ रखते हैं। गीतों के प्रति इस रुझान के पीछे कोई खास वजह है जिसने आपको गीत लिखने के लिए प्रेरित किया हो? अगर है, तो मैं जानना चाहूँगी।

उत्तर: ये और मस्त सवाल है। एक जिद है कि लोग कुछ भी गा कर या लिख कर खुद को लेखक कवि या गायक मान रहे है, जबकि कलम गद्य पद्य की भी मर्यादा होती है, श्रृंगार होता है। हर कोई प्रेमचंद या महादेवी वर्मा बनने की होड़ में है पर उनके जैसे शब्द खोजने की मेहनत नही करना चाहता। मैंने गीत लिखने या कविता लिखनी इसलिए शुरू की कि आजकल के सो कॉल्ड संस्कृति के संरक्षक जो नेगी जी, भरतवाण जी के गानों को गाकर कह रहे कि हम उनके शब्दों को बचा रहे है या उनके खोये गीतों को जिंदा कर रहे है। या उन सेलेब्रिटीज़ का कहना था कि हम जो लिख रहे है लोग उसे कम पसन्द करते है तो मुझे बहस करने की आदत नहीं पर जवाब देने की आदत है। मैंने अलग तरीके से जवाब दिया कि अगर मन में रचनाशीलता की कमी हो तो ही आप लिख नहीं सकते। वरना भाव प्रस्तुति में कलम अपने आप चल पड़ती है। आप इसे एक अहंकार का भाव भी समझ सकती है पर ये सत्य है लोग बहाने बनाते है या फिर सवा करके खुद को डेढ़ चिताते है। रही बात कविता की तो खुद के नाम के आगे गढ़वाली कवि और कवियत्रियों को “बोल्या और बौळया” में फर्क बताने के लिए कविता गढ़ी गई। हाथ में माइक आने के बाद लोग बस जो मन में आया रिकॉर्ड करके पहाड़ी कविता के नाम पर प्रस्तुत कर देते हैं। इसलिए मैं शब्दों से कहना चाहता था कि खुद नहीं तो उस माइक की लाज रख लीजिये।

ये शब्द भी आपको अहंकार से भरे लग सकते है। सीधी बात ये कि कस्बों में बसे हम, उत्तराखंड के नाम पर आने वाली पीढ़ी को शब्दों का चूना लगा रहे है। ये मुझे मंजूर नही।

कविता यहाँ क्लिक करके सुन सकते हैं: यु मर्च सि बबराट किलै—-द्वी सवालु मा इथगा घबराट किलै

अहंकार इंसान को वहाँ होने लगता है, जहाँ उसकी सीखने की तमन्ना खत्म हो जाती है। क्योंकि उसे लगने लगता है वो जो कर रहा है सही है। आपके हर एक शब्दों से मैं सहमत हूँ। हर बोली भाषा एक जैसी नहीं होती तो उसे कहने और लिखने का ढंग भी एक जैसा नहीं हो सकता है।

प्रश्न: एक कलाकार के रूप में आपने खुद को दर्शकों के सामने बाखूबी प्रस्तुत किया है। गंज्याली गीत में शब्दों की भाव भंगिमा को जिस तरह आपने पिरोया है। उससे इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि गढ़वाली भाषा में आपकी पकड़ कितनी मजबूत है। इस गीत को लिखते वक़्त आपकी क्या सोच रही ? क्या कोई खास ख्याल था? जिसने आपको गीत लिखने पर आतुर कर दिया हो?

उत्तर: गंज्याली को आप शायद मेरी सबसे बड़ी कामयाबी कह सकती है, और सच में ये मेरी अब तक की सबसे बड़ी कामयाबी है, पर सच्चाई ये है कि इस गीत के दो रचनाकार है। दूसरे रचनाकार है श्री कैलाश डंगवाल जी। भाव भंगिमा, विषय वस्तु उनकी थी, शब्द गढ़े गए और गाना बन गया। वैसे पहले इस गाने का नाम तिफड़या रखा जाने वाला था और उसी के इर्द गिर्द ये गाना लिखा गया था पर जब गाना फाइनल रिकॉर्ड हुआ तब हमने इसका नाम बदल दिया, और इस गाने की सफलता का राज इसके नाम में भी है।

ये गाना मानवीय अलंकार और श्रृंगार रस पर आधारित है जिसकी पहले वीडियो बनाने की परिकल्पना की गयी फिर उसे लिखा गया, कि गाँव के उरख्याले में धान कूट रही एक नई नवेली सुंदरी को देख कोई अपने आप को खोज रहा है कि इस धान का क्या भाग है। मैं इतनी दूर हूँ और ये अनाज ये गंज्याली ये धान उसके कितने पास है, अहा क्या भाग है।

बाकी लिखने के लिए आतुर श्री कैलाश डंगवाल जी ने किया उन्हें किस ने आतुर किया ये आप उनसे उनके इंटरव्यू में पूछ सकती है।

‘गंज्याली’ आप यहाँ क्लिक करके सुन सकते हैं: गंज्याली

वाकई में बहुत खूबसूरत भाव को अलंकृत कर लिखा गया है इस गीत को। रही बात कैलाश जी से पूछने की, तो मौका लगा तो जरूर पूछेंगे।

प्रश्न: आपके गीत प्यार के साथ-साथ विषय आधारित भी होते हैं। रंगताट और चखन्यौ गीत के बारे में कुछ बताइए। इसके पीछे किसकी सोच रही? इन दोनों गीतों को लिखने में आपको कितना समय लगा?

उत्तर: नही! मेरे गीत प्यार पर नही श्रृंगार और मानवीय अंलकार के आस पास आधारित होते है। रंगताट को लिखते वक्त गीत की धुन पहले बन चुकी थी इसलिए वो गाना उसी तेजी से बना मतलब वो पहला गाना था मेरा, जिसे मैने 7 मिनट में लिखा।

‘रंगताट’ आप यहाँ क्लिक करके सुन सकते हैं: रंगताट

चखन्यौ की लिखावट दो कस्बों की सुंदरियों को तुलनात्मक दृष्टि से देखा गया है, पहला बड़े शहर की नकली पहाड़न और दूसरा श्रीनगर के बाजार में पूरे फैशन और टशन में घूमती वो बांद जो अपनी बोली भाषा में बात कर रही थी।

‘चखन्यौ’ आप यहाँ क्लिक करके पढ़ सकते हैं: चखन्यौ

प्रश्न: बरसों से ही गीत संगीत की साझेदारी बहुत खास रही है। आपके तीनों गीतों में भी हमें गुंजन डँगवाल का संगीत और उनकी आवाज़ सुनाई दी है। गुंजन के साथ गीत संगीत की इस साझेदारी का सफ़र कैसे और कब शुरू हुआ? क्या आप अपने आने वाले गीतों में भी इस साझेदारी को बरकरार रखेंगे? या किसी और संगीतकार भी आप ये सौभाग्य देंगे।

उत्तर: गुंजन डंगवाल को मैं उनकी पहली यूट्यूब के गीतों की सीरीज मन बिराणु से फॉलो कर रहा हूँ जो शायद 2013 या 14 में सुने थे मैंने तो बिना उनसे जान पहचान किये उनके काम के बारे में लिखा, फिर शायद किसी ने उन तक मेरे शब्द पहुँचाये तब जाकर मुलाकात हुई। गानों से पहले मैं उनके लिए लगभग 6 वीडियो में वॉइस ओवर दे चुका हूँ, फिर हमने उत्तराखंड के सबसे सुपर हिट गीत चैतवाली जागर के संगीतकार को स्टूडियो में बुलाया तो तब से जान पहचान गहरी हो गयी। गुंजन की एक खासियत है कि इतना बड़ा संगीत का सरताज होने के बाद भी वो अपने काम के प्रति समर्पित है। हर छोटी चीज और सलाह को सुनता है और अमल करता है चाहे वो बात किसी ने भी कही हो। यही बात उसको बड़ा बनाती है।

फिलहाल शब्दो को सूत्र में पिरोने की कला उन्ही के अंदर दिखती है, और फिलहाल मुझे कोई ऐसा संगीतकार या गायक नही मिला जो मेरे शब्दो को उसी सामर्थ्य से शीर्ष तक ले जाए। तो गुंजन के साथ ये सफर आगे जाएगा, बाकी अगर किसी गायक या संगीतकार ने शब्दों को सम्मान दिया तो उसके साथ भी काम करने में कोई समस्या नही है।

प्रश्न: प्रदीप आप सोशल मीडिया पर भी काफी सक्रिय रहते हैं जो कि लाजमी है। सोशल मीडिया के माध्यम से आप कई सामाजिक मुद्दों पर अपने शब्दों के बाणों से हमेशा कड़ा प्रहार करते रहते हैं। बात चाहे किसी ज्वलंत मुद्दे की हो या किसी कलाकार के ट्रालिंग होने की, आप हर गलत बात पर अपनी राय देते हैं। क्या इस तरह के सामाजिक और सांस्कृतिक मुद्दे आप अपने शो के जरिए भी उठाते हैं? ऐसे मुद्दों पर राय देने के बाद क्या आपको भी कभी किसी के तीखे शब्दों का शिकार होना पड़ा है?

उत्तर: नहीं, कौन भला तीखे शब्द कह कर कड़वे प्रवचन सुनेगा। देखिए मेरा उसूल है जो देखता हूँ बोलने का आदी हूँ। मैं अपने शहर का सबसे बड़ा फसादी हूँ। इसके साथ-साथ एक चीज और भी कही जा सकती है कि आप सोशल मीडिया पर क्या क्या प्रस्तुत कर रहे हैं। रही बात मुझे कड़वे शब्दों को सुनाने की तो किसकी मौत आ रखी है जो मुझे कड़वे शब्द कह डाले।

प्रश्न: आपने अपने शो के माध्यम से नंदा राजजात का सोलह भागों में उसकी सृष्टि सृजन से लेकर होमकुंड तक का सम्पूर्ण यात्रा वृतांत किया है। आपका शो गढ़वाली भाषा में प्रसारित किया जाता है, तो क्या ये वृतांत आपने गढ़वाली भाषा में संपन्न किया है? या हिन्दी भाषा में?

उत्तर: ये फिलहाल मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि है जो गढ़वाली बोली में ही रिकॉर्ड है। इसे हिंदी में रिकॉर्ड करने के लिये उसी भाव की आवाज अभी मिली नहीं।

और यह एक रेडियो डॉक्यूमेंट्री है। वीडियो में 1 घण्टे के 16 भागों को बनाना मुश्किल है।

प्रश्न: प्रदीप आपने रेडियो खुशी में शो होस्ट करने के अलावा भी कई डॉक्यूमेंट्री में गढ़वाली भाषा में अपनी आवाज दी है। क्या आपका कभी हिन्दी भाषा में भी कोई प्रोग्राम होस्ट करने का मन नहीं हुआ? क्या कभी किसी और रेडियो स्टेशन के लिए आपने काम करने की मंशा जताई?

उत्तर: हिंदी में 2 बार ट्राय किया, अपने आप को आंका फिर ये निष्कर्ष निकला कि मैं हिंदी आर जे नहीं बन सकता। रही बात मन की तो वो प्रधानमंत्री जी कर तो रहे है। और किसी और रेडियो स्टेशन में गढ़वाली शो नहीं है। आकाशवाणी में है पर वहाँ तो मेरे लेजेंड है विनय ध्यानी जी उनके सामने तो मैं धूल हूँ। बाकी ये सिर्फ गढ़वाली गीत बजाने वाला रेडियो खुशी का गढ़वाली शो नहीं है। इस शो की एक मर्यादा और जिम्मेदारी है, किसी अन्य रेडियो स्टेशन में वो नहीं मिलेगी तो अन्य का सवाल फिलहाल ठंडे बस्ते में है।

प्रश्न: एक रेडियो जॉकी के रूप में आपका अब तक का सफ़र कैसा रहा? किसी खास प्रोग्राम से जुड़ी कोई याद है? जिसे आप आज भी न भूले हो? या किसी कलाकार के साथ आपकी कोई खास मुलाकात जिसे आप कभी नहीं भूल सकते हो? अगर है तो प्लीज बताइए।

उत्तर: एक रेडियो जॉकी के रुप में सफर शानदार है, इस बात का गर्व है कि जनता ने मुझे पसन्द किया और मुकाम तक पहुँचाया। वहाँ से गिरने नहीं दिया, वो जगह किसी और को नहीं दी। इसलिये मेरा हर श्रोता मेरा गर्व और अहंकार दोनो है, और हो भी क्यों न उनका कान और ध्यान मेरी बातों पर जब चला जाता है तो कई बार वो गाना बजाने को ही मना कर देते है। ऐसा प्यार किसके नसीब में होगा।

मेरा हर शो यादगार रहता है हर दिन का। बाकी मेरी यादगार मुलाकात वाला शो वो है जिसमें मिन्नी उनियाल और गीता उनियाल आईं थी। मिन्नी उनियाल मेरी फेवरेट हैं हमेशा उन्हें वीडियो में देखा था, फिर जब सामने बातचीत करी तो यादगार बन गई। और न भूलने वाला कार्यक्रम था पांडवास के साथ, 12 अगस्त को। जब मैंने सबसे लम्बा गढ़वाली शो किया था, 1 30pm बजे से लगातार 7 30pm तक। और बहुत कुछ सीखने को मिला था।

प्रश्न: मैंने आपका एक प्रोग्राम सुना था जिसमें आप पलायन के विषय में चर्चा कर रहे थे, और युवाओं को स्वरोजगार के लिए प्रेरित कर रहे थे। आप खुद भी गाँव से जुड़े व्यक्ति हैं मगर जॉब के लिए घर से दूर मसूरी में रहते हैं। तो पलायन के विषय में आपके क्या विचार हैं? आप इस समस्या को किस रूप में देखते हैं?

उत्तर: पलायन को अभी तक परिभाषित नही किया गया। उसे बस एक ही रूप में देखा जाता है जो कि गलत है, गलत से मतलब सात समुंदर और पाँच महाद्वीप में काम करने के बाद भी कोई वापस अपने घर लौटे तो वो पलायन नहीं है। उत्तराखंड के भीतर काम करना पलायन नहीं है। पर गावँ की कूड़ी पर ताला मार के किसी कस्बे या शहर में बस जाना पलायन है, शिक्षा और रोजगार के नाम पर घर को खंडहर करके खुद 100 गज की तड़ में रहना पलायन है।

कोई अगर बाहर जॉब पर है पर उसके गाँव के घर के दरवाजे खुले है, वो पलायन नहीं है।
सगाई से पहले कुंडली मिलाने से पहले लड़के का प्लाट देखना पलायन है और शादी के 3 महीने बाद साथ ले जाने की जिद पलायन है।

मेरी जॉब मसूरी में है और 7 घण्टे के सफर दूर मेरा घर है, जो आबाद है और रहेगा, हर शर्त पर। कमाने के लिए आप जहाँ मर्जी जाओ, कम से कम दरवाजे बन्द न होने दो और कर दिए तो फिर छुट्टी वाले दिन अपने कस्बों में किसी के घर पर जमावड़ा करके पलायन पर चिंतन न करो।

बहुत ही गहन, चिंतनीय मगर एकदम सटीक परिभाषा दी है आपने पलायन की।

प्रश्न: प्रदीप बातों की लड़ियाँ ऐसी होती हैं जिन्हें जितना निकालो फिर भी खत्म नहीं होती हैं। लेकिन समय की पाबंदी के चलते इन्हें बीच में ही विराम देना पड़ता है। ये बात आपसे अच्छा और कोई नहीं समझ सकता है। चलचित्र सेंट्रल के लिए आपने अपना कीमती समय दिया उसके लिए मैं आपकी आभारी हूँ। आपका आने वाला भविष्य उज्ज्वल हो, खुशियों से भरा हो इसी मंगल कामना के साथ आपके साथ हुई इस चर्चा को यहीं समाप्त करती हूँ। जाते जाते आप अपने सुनने वाले फेन्स के लिए अगर कुछ कहना चाहते हैं तो प्लीज कह दीजिए।

उत्तर: आपका धन्यवाद कि आपने इस लायक समझा कि आप मेरी बातों को अपने कार्यक्रम में शामिल कर रही है।

रही बात अपने फेन्स को कुछ कहने की, तो हाँ एक बात कहनी थी,

सब कुछ बिखर जाने के बाद भी अगर आप मुस्कुरा रहे हैं तो यकीन मानिए आपको कोई नहीं तोड़ सकता। आप दुबारा शुरुवात कीजिये यकीन मानिए सफलता हासिल होकर रहेगी।

*****

तो ये थी आज की खास मुलाकात एक खास मेहमान के साथ। रेडियो खुशी 90.4 एफ़. एम. के रेडियो होस्ट प्रदीप लिंग्वांण के साथ। मुझे उम्मीद है आपको पसंद आई होगी। आगे और भी कलाकारों को आपसे रूबरू कराएंगे तब तक के लिए अपना प्यार और अपना साथ यूँ ही बनाए रखें।

नमस्कार।

About सुजाता देवराड़ी

सुजाता देवराड़ी मूलतः उत्तराखंड के चमोली जिला से हैं। सुजाता स्वतंत्र लेखन करती हैं। गढ़वाली, हिन्दी गीतों के बोल उन्होंने लिखे हैं। वह गायिका भी हैं और अब तक गढ़वाली, हिन्दी, जौनसारी भाषाओँ में उन्होंने गीतों को गाया है। सुजाता गुठलियाँ नाम से अपना एक ब्लॉग भी चलाती हैं।

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7 Comments on “साक्षात्कार: प्रदीप लिंग्वांण”

  1. बहुत बढ़िया साक्षात्कार सुजाता,
    शुभकामनाएं

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