प्रीतम भरतवाण

प्रीतम भरतवाण - जीवनी

संक्षिप्त परिचय:

नाम: प्रीतम भरतवाण (Pritam Bhartwan)
जन्मस्थान: सिला गाँव, देहरादून
जन्म दिवस: 17 सितंबर 1970
व्यवसाय: गायन
रुचि: पारंपरिक वाद्ययंत्र, लोकगीत & जागर

तुमुन हमूँ थें सँजोई रखी यू हमरु धन भाग च।
हम सदनी बस्याँ रौला तुमरा भीतर, यू हमरु वरदान च।

– सुजाता देवराड़ी

ये शब्द उन वाद्य यंत्रों की तरफ से उस महान व्यक्ति के लिए हैं जिन्होंने अपने अंदर हमेशा इनको जीवंत रखा है। इसी खुशी में उत्तराखंड संगीत के वाद्य यंत्र भी उनके अंदर हमेशा बसने का वरदान देते हैं।


ये वो महान हस्ती है जिन्हें सब जागर सम्राट के नाम से जानते हैं। पहाड़ी गायन क्षेत्र में उनका नाम बड़े अदब से लिया जाता है। आईए जानते हैं उनके कुछ अनछुए पहलुओं के विषय में जो आपको उनके और करीब कर देगी।

कहाँ और कब हुआ था प्रीतम भरतवाण (Pritam Bhartwan) का जन्म

प्रीतम भरतवाण (Pritam Bhartwan) का जन्म रायपुर ब्लॉक के सिला गाँव में 17 सितंबर को हुआ था। एक औजी परिवार में जन्म लेने के कारण उन्हें संगीत विरासत में मिला था। उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में औजी परिवार के अधिकतर लोग देवी देवताओं को खुश करने के लिए उनका आव्हान पहाड़ी गीतों से करते हैं जिन्हें जागर कहा जाता है। उन्हीं परिवारों में एक परिवार प्रीतम भरतवाण का भी है। उनका कहना है कि उनके घर में ढ़ोल दमों से लेकर धौंसी और थाली सब रहती थी। इनको बजाकर उनके दादाजी और पिताजी गायन करते थे। संयुक्त परिवार में पले बढ़े होने के कारण उनको अपने पिताजी के साथ गाँव में किसी खास पर्व और खास दिनों में जागर गाने का अवसर मिल जाया करता था। गायन में इनकी रुचि बचपन से ही इनके अंदर एक अलग एहसास जगाने लगी थी तभी उन्हें ढोल सागर का काफी ज्ञान था। मात्र 5 साल की उम्र से ही प्रीतम भरतवाण (Pritam Bhartwan) लोक संगीत को नई ऊँचाईयों पर पहुँचाने की तरफ अग्रसर हो चुके थे।

स्कूली शिक्षा के साथ साथ लोक संगीत को लगाया गले

प्रीतम भरतवाण (Pritam Bhartwan) की स्कूली शिक्षा उनके गाँव के ही आसपास वाले स्कूल में हुई है। उनको प्यार से उनके घरवाले और स्कूल के साथी प्रीति नाम से पुकारा करते थे। ये बात सच है कि प्रीतम भरतवाण बचपन में ही लोकगीत व वाद्ययंत्रों के प्रति आकर्षित हो चुके थे। उनको पढ़ाई से ज्यादा मजा इन वाद्ययंत्रों को सीखने में आता था। प्रीतम भरतवाण जब मात्र तीन साल के थे तब उनको एक बार स्कूल में रामी बौराणी नाटक में बाल आवाज़ देने का मौका मिल गया था। फिर उन्होंने मसूरी में किसी स्कूल में नृत्य नाटक में डाँस किया। धीरे धीरे प्रीतम अपने प्रिंसिपल की नज़रों में आ गए। इसके बाद एक बार स्कूल के बच्चों के साथ प्रीतम ने किसी प्रोग्राम के लिए प्रिंसिपल के ऑफिस में जाकर सिंगिंग ऑडिशन दिया जिसे उन्होंने पास कर लिया। प्रिंसिपल प्रीतम की आवाज़ सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और उसके बाद प्रीतम स्कूल के हर प्रोग्राम में गाने लगे।

कैसे और कब हुई प्रीतम भरतवाण के गायन की शुरुवात

यूँ तो प्रीतम भरतवाण (Pritam Bhartwan) के गायन की शुरुवात बचपन से ही हो गई थी मगर दुनिया के सामने उनको गायक के रूप में उनके चाचा ने प्रस्तुत किया। प्रीतम के पिताजी और चाचा जी शादियों में रात रात भर गाना बजाना करते थे। एक दिन किसी समारोह में रात के 3 बजे उनके चाचा जी ने उनसे कहा कि अब वो थक गये हैं और आगे के गीत प्रीतम भरतवाण (Pritam Bhartwan) ही गायेंगे। इसके बाद यह बात उनके चाचा जी ने माइक पर भी घोषित कर दी। उस दिन प्रीतम भरतवाण (Pritam Bhartwan) की पहली पब्लिक परफ़ॉर्मेंस हुई।

इसके बाद उन्होंने गढ़वाली गीतमाला के जरिये अपनी आवाज का जादू बिखेरा। इसके बाद उनकी जागर की प्रस्तुति इतनी लोकप्रिय हुई कि उन्हें ‘जागर सम्राट’ कहकर पुकारा जाने लगा। 1988 में प्रीतम भरतवाण (Pritam Bhartwan) ऑल इंडिया रेडियो से जुड़े और कई सालों तक उन्होंने रेडियो पर प्रोग्राम किए।

.सबसे खास बात यह रही कि मात्र 12 साल की उम्र में ही उन्होने लोगो के सामने जागर गाना शुरू कर दिया था। इस जागर को गाने के लिए उनके जीजाजी और चाचा ने उन्हे कहा था।

प्रीतम भरतवाण की संगीत शिक्षा

कहा जाता है कि एक बच्चे की प्रथम पाठशाला उसका परिवार होता है। उसके गुरु उसके माता पिता के साथ साथ आसपास के वे सभी लोग होते हैं जिनके साथ वो बच्चा खेलता बोलता उठता बैठता है। प्रीतम की शिक्षा भी उसके परिवार से ही शुरू हुई है। उनके मन में संगीत के प्रति रुचि का पनपना का कारण उनका परिवार और उस परिवार द्वारा सँजोये गए वो वाद्ययंत्र हैं जिन्हें देख सुनकर वो उनके प्रति अपना वात्सल्य प्रकट करने लगे। प्रीतम भरतवाण के गुरु उनके पिता हेम भरतवाण (Hem Bhartwan) थे, जिन्होंने उन्हें लोक संगीत की प्रारम्भिक शिक्षा दी। उन्हें हर वो चीज सिखाई जो उनका परिवार किया करता था। प्रीतम भरतवाण (Pritam Bhartwan) बचपन से ही होनहार बालक थे। उनकी ग्रहण करने की क्षमता बहुत तीव्र थी। जब प्रीतम ने गायन को अपना करियर और अपना सपना मान लिया था तब उसके बाद उन्होने संगीत विद्यालय ऋषिकेश से संगीत शिक्षा ग्रहण की।

ऐसे हुई प्रीतम भरतवाण के लोक गीत गायन की शुरुवात

हमारे समाज में दासों को थोड़ा नकारात्मक सोच का सामना करना पड़ता है। जबकि इन्हीं दासों के बिना देवी देवताओं का आव्हान करना संभव नहीं है। जातिवाद विचारधारा की लड़ाई में दास जाती हमेशा से पिसती रही है। जब समाज और सरकारों की उपेक्षा से दास समुदाय ढोल और दमऊ को बजाने से परहेज कर रहे थे, ऐसे मौके पर प्रीतम भरतवाण (Pritam Bhartwan) ने ढोल-दमऊ को बजाना शुरु किया।

उन्हें दमाऊ, हुड़का और डौंर थकुली बजाने में भी महारत हासिल है। जागरों के साथ ही उन्होंने लोकगीत, घुयांल और पारंपरिक पवाणों को भी नया जीवन देने का काम किया है।

लोक गायन के मैदान में प्रीतम को पहली सफलता उनकी कैसेंट तौंसा बौं (Tounsa Boo) से मिली जो कि रामा कैसेट से रिलीज हुई थी। आपको शायद मालूम ना हो मगर उनकी यह कैसेट 1995 मे निकली थी जिसने प्रीतम भरतवाण (Pritam Bhartwan) को बहुत सफलता दिलाई। इसके साथ ही उन्हे सबसे ज्यादा पॉपुलैरिटी सरूली मेरू जिया लगीगे (Saruli Meru Jiya Lagige) गाने से मिली। सफर आगे बढ़त रहा और उन्हें कामयाबी मिलती रही। उनका जागर नारैणी (Nareni) ने तो विदेशों तक में धूम मचा दी थी। पैंछि माया (Painchhi Maya), सुबेर (Suber), रौंस (Rauns), तुम्हरि खुद (Tumhri Khud) और बाँद अमरावती (Baand Amrawati) जैसी सुपर डुपर हिट एल्बम प्रीतम भरतवाण के गले से प्रवाहित हुई हैं।

प्रीतम भरतवाण (Pritam Bhartwan) ना सिर्फ जागर गाते हैं बल्कि लोकगीत, पवांड़े , और लोकगीत भी गाते हैं। प्रीतम लोकगायक ही नहीं बल्कि उच्च कोटि के गीत लेखक भी हैं। प्रीतम ने केवल लोकगीतों को गाया ही नहीं बल्कि पहाड़ के पारम्परिक वाद्य यंत्रों को बजाने में उन्हें महारत हासिल है। प्रीतम कहते है उन्हें ये कला अपने पूर्वजों से हासिल हुई जो सदियों से ढोल दमऊ को बजाते रहे है। वे ढोल, दमाऊ, हुड़का, डौंर थाली आदि कई लोक वाद्य यंत्रों के वादन में भी दक्ष है।

पहाड़ के पारंपरिक वाद्ययंत्रों को विदेशों की कराई सैर

लोक गायक प्रीतम भरतवाण (Pritam Bhartwan) ने अपनी पहाड़ी संस्कृति का झंडा अमेरिका में भी बुलंद किया है। उन्होंने अमेरिका प्रवास में ओहायो की सिनसिनाटी यूनिवर्सिटी में अमेरिकियों को ढोल-दमौं सिखाकर उनको इन वाद्ययंत्रों की बारिकियों के बारे में भी बताया।

एशिया से यूरोप, अमेरिका, कनाडा, जर्मनी, दुबई तक संगीत की ‘जागर’ विधा को पहुँचाने और सम्मान दिलाने का काम प्रीतम भरतवाण (Pritam Bhartwan) ने किया है। इसलिए देश-विदेश में उनके अनेक शिष्य हैं। प्रीतम की गायिकी से ऐसा आभास होता है कि बचपन से ही इनके कण्ठ में सरस्वती जागृत रूप में विराजमान हैं।

प्रतीम भरतवाण द्वारा लिखी गयी किताबें

प्रीतम भरतवाण (Pritam Bhartwan) द्वारा गाये लोक गीतों, जागर पांवड़ों और स्वरचित गीतों को वर्ष 2010 में पहली बार विनसर प्रकाशन (winsar publication) द्वारा सुर्ज कांठ्यों (Surj Kanthyon) नामक किताब के रूप में प्रकाशित किया गया था।

किन किन उपाधियों से सम्मानित हुए प्रीतम भरतवाण

प्रीतम भरतवाण (Pritam Bhartwan) को उत्तराखंड विभूषण, जागर शिरोमणि , सुर सम्राट, हिमालय रत्न जैसे कई उपाधियों से सम्मानित किया जा चुका है। उत्तराखंड के लोक संगीत में उल्लेखनीय योगदान देखते हुए उन्हें उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय हल्द्वानी कुमाऊँ ने (डॉक्ट्रेट) मानद उपाधि से गवर्नर के हाथों सम्मानित किया है।

प्रीतम भरतवाण (Pritam Bhartwan) को प्रवासी उत्तराखण्ड समाज लुधियान द्वारा भगीरथ पुत्र सम्मान 2002, उत्तराखण्ड गौरव सम्मान – दिल्ली तथा राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा सम्मानित किय गया है। 2019 में जागर विधा को फिर से जागृत कर इसको ना सिर्फ उत्तराखंड बल्कि देश विदेश तक पहुँचाने के लिए प्रीतम भरतवाण को भारत सरकार द्वारा देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मानों में से एक पद्म भूषण सम्मान से सम्मानित किया गया था।

About सुजाता देवराड़ी

सुजाता देवराड़ी मूलतः उत्तराखंड के चमोली जिला से हैं। सुजाता स्वतंत्र लेखन करती हैं। गढ़वाली, हिन्दी गीतों के बोल उन्होंने लिखे हैं। वह गायिका भी हैं और अब तक गढ़वाली, हिन्दी, जौनसारी भाषाओँ में उन्होंने गीतों को गाया है। सुजाता गुठलियाँ नाम से अपना एक ब्लॉग भी चलाती हैं।

View all posts by सुजाता देवराड़ी →

Leave a Reply