निर्देशक/ लेखक : देबलॉय भट्टाचार्य
भाषा: बांग्ला
मुख्य किरदार:
ब्योमकेश बक्षी – एक प्रसिद्ध डिटेक्टिव जो अब वृद्ध हो चुका है (अबीर चटर्जी)
सत्यवती – ब्योमकेश बक्षी की पत्नी(सोहिनी सरकार)
अभिमन्यु बक्षी – ब्योमकेश बक्षी का पुत्र (जॉय सेनगुप्ता )
अनुसूया बक्षी – अभिमन्यु बक्षी की पत्नी (बिदिप्ता चक्रबर्ती)
कृष्णेंदु मालो – अभिमन्यु का दोस्त और सहकर्मचारी (रूपांकर बागची)
सत्यकि – ब्योमकेश बक्षी का पोता(अबीर चटर्जी)
अजीत बनर्जी – ब्योमकेश बक्षी का दोस्त(राहुल बनर्जी)
अवन्तिका/सत्यवती – सत्यकि की प्रेमिका(सोहिनी सरकार)
सुबिमल – इंस्पेक्टर (सुजोय प्रसाद चटर्जी)
अनिरुध राय चौधरी – प्रमोटर (अरिंदम सिल)
कहानी:
ब्योमकेश बक्षी अब वृद्ध हो चुका है। वह अब रिटायर है। उसको भी इस बात का मलाल है कि वह अब ‘था’ हो चुका है। अपने शौक(मुल्तानी मिट्टी की मूर्तियाँ बनाना) और सत्यबती और अजित के ख्यालों में खोया वह अपने दिन काट रहा है। अपने घर में अपनी बहु अनुसूया और अपने पोते सत्यकि के साथ रहता है। उसका बेटा अभिमन्यु दो साल से लापता है। वह किधर गया है यह किसी को नहीं पता है। ब्योमकेश भी उसे ढूँढने में असफल रहा है। इसी के चलते ब्योमकेश और उसके पोते के बीच में तनाव रहता है।
सत्यकि ब्योमकेश को अपने पिता को न खोज पाने की असफलता के लिए माफ़ नहीं कर पाया है। वहीं इस बात को लेकर ब्योमकेश को मलाल है कि वह सब कुछ ठीक न कर सका। यह उसके लिए सबसे जरूरी मामला था और इसी को वह सुलझा नहीं पाया।
दो साल से गायब अभिमन्यु बक्षी जब नोनापुकुर स्टेशन में एक रात को लौटता है तो उसके हाथ में एक खून टपकाता चाक़ू रहता है। अभिमन्यु के अनुसार उसने एक खून किया है। वह अब आत्मसमर्पण करना चाहता है।
अभिमन्यु दो साल से कहाँ था? वह अचानक से वापस क्यों आ गया है?
उसने किसका कत्ल किया है? क्या वह असल में कातिल है?
व्योमकेश के सामने यह सवाल मुँह बाए खड़े हैं।
क्या ब्योमकेश रहस्यों से पर्दा उठा पायेगा? क्या वह अपना आखिरी केस सुलझा पायेगा?
विचार:
बिदाय ब्योमकेश निर्देशक देबलॉय भट्टाचार्य की ब्योमकेश को लेकर लिखी गयी फिल्म है। ब्योमकेश बक्षी को लेकर वैसे तो काफी फिल्में बनी हैं लेकिन अक्सर उनके आधार शरदिंदु बंधोपाध्याय की कहानियाँ ही रही हैं। ऐसे में यह फिल्म कुछ नया आपके सामने प्रस्तुत करती है।
कहानी आपको शुरुआत से बांधकर चलती है। अभिमन्यु बक्षी के आने से कई प्रश्न दर्शकों के मन में उठने लगते हैं और उन प्रश्नों के उत्तर जानने के लिए वह फिल्म देखता चला जाता है। फिल्म में मौजूद विभिन्न चरित्रों के बीचे के समीकरण फिल्म में रूचि बनाये रखते हैं। कहानी में संदिग्ध दिखने वाले चरित्र इतने हैं कि रहस्य आखिर तक बना रहता है।
अबीर चटर्जी ने इस फिल्म में दो किरदार निभाए हैं।
अबीर ने अब तक छः फिल्मो (ब्योमकेश बक्षी, ब्योमकेश फिरे एलो, हर हर ब्योमकेश, ब्योमकेश परबो, बिदाय ब्योमकेश, ब्योमकेश गोत्रो) में ब्योमकेश के किरदार को निभाया है।
इस फिल्म में भी ब्योमकेश बक्षी के वृद्ध रूप को अबीर ने ही निभाया है। व्योमकेश शारीरिक रूप से काफी कमजोर हो चुका है। उसकी इस कमजोरी को दिखाने के लिए अबीर ने ब्योमकेश के डायलॉगस को चबा चबा कर कहा है जिससे यह लगता है जैसे उन्हें एक एक शब्द को बोलने में काफी तकलीफ करनी पड़ी है। चाल में धीमापन भी उसकी शारीरिक जर्जरता को दर्शाने के लिए इस्तेमाल किया गया है। हाँ, मानसिक रूप से ब्योमकेश अभी भी उतना ही तेज है लेकिन उसे पता है कि उसे अगर कुछ करना है तो उसे एक साथी की जरूरत होगी।
सत्यकि के रूप में अबीर एक ऐसे युवा के तौर पर दिखते हैं जिनके अन्दर अपने पिता और दादा को लेकर काफी गुस्सा है लेकिन वह बात करने के बजाय उनसे भागना पसंद करता है। सत्यकि ने देखा है कि कैसे उसके पिता एक पुलिस अफसर होने के चलते अपने परिवार को समय नहीं दे पाए थे। इस कारण वह अपराध से जुड़े क्षेत्र में कदम नहीं रखना चाहता है। वह इससे जितना दूर हो सके रहना चाहता है लेकिन किस्मत उसे इसी और धकेलती है। उसके भीतर का यह द्वंद फिल्म में कई बार दिखता है। कई बार वह यह बात साफ़ भी करता है कि वह इन मामलों से दूर रहना चाहता है।
यह दोनों ही किरदार बिल्कुल अलग तरह हैं और दोनों को अबीर चटर्जी ने बखूबी ने निभाया है।
सोहिनी सरकार ने भी फिल्म में दो किरदार निभाए हैं। अवन्तिका और सत्यवती दोनों के रूप में जंचती हैं। जहाँ सत्यवती के रूप में वो परिपक्व लग रही हैं वहीं अवन्तिका के रूप में एक तरह के अल्हड़पन और समझदारी का मिर्श्रण दिखाने में वह कामयाब रहती हैं।
फिल्म में अभिमन्यु बने जॉय, अनुसूया बनी बिदिपिता और अजित बने राहुल बनर्जी ने अपने किरदारों के साथ न्याय किया है। वहीं रूपंकर बाग्ची, सुजोय प्रसाद चटर्जी ने भी अपने किरदारों को अच्छी तरह निभाया है।
कहानी यूँ तो मुझे पसंद आई लेकिन इसके कुछ भाग ऐसे हैं जो कि फिल्म की पूरे टोन से अलग लगते हैं।
मध्यांतर में सत्यकि अपने जीवन का एक बड़ा निर्णय लेता है लेकिन उसे जिस तरह से दिखाया गया है वो फिल्म की अभी तक की टोन से अलग लगता है। फिल्म का ज्यादातर हिस्सा संजीदा है, ऐसे में बीच में इस तरह का ओवर द टॉप कॉमिक चित्रण थोड़ा अटपटा लगता है।
कहानी का अंत भी थोड़ा अटपटा है। सुजोय प्रसाद चटर्जी के गेटअप का कारण समझ नहीं आता है। वो पूरी फिल्म में सही दिखते हैं लेकिन आखिर में अपने मेकअप के कारण कार्टूनिश से दिखाई देते हैं। यह करने की जरूरत नहीं थी। आखिर में रहस्यों का ताना बाना जहाँ जाकर खुला है वो एक रहस्यकथा कम पारिवारिक ड्रामा ज्यादा लगता है। अंत बेहतर हो सकता था।
यह फिल्म ब्योमकेश बक्षी के आखिरी केस के तौर पर लिखी गयी है। फिल्म में ब्योमकेश केस तो सुलझा रहा है लेकिन वह केवल एक मेंटर के रूप में दिखता है। वह पीछे रहकर सत्यकि को अपनी जगह लेने के तैयार करता सा दिखता है। इस दिशा में यह एक अच्छी कोशिश है। इससे फायदा यह होगा कि आगे की कहानियों को आज के समय में रचा जा सकता है। शरदिंदु बंदोपाध्याय जी ने ब्योमकेश को लेकर 34 कहानियाँ ही लिखी थी और उन्हीं के अलग अलग रीमेक अभी तक बनते रहे हैं। इस फिल्म में ब्योकेश की लिगेसी में एक नई शुरुआत हुई है। अब देखना यह है आगे क्या आता है?