जब कोई बात बिगड़ जाए, ( फिल्म- जुर्म 1990 )

जुर्म - जब कोई बात बिगड़ जाए

गीत-  जब कोई बात बिगड़ जाए, जब कोई मुश्किल पड़ जाए
फिल्म-  जुर्म (प्रदर्शित-5 जुलाई-1990 )
गायाकार-  कुमार सानू,साधना सरगम
संगीत-  राजेश रौशन
बोल- इंदीवर 

निर्माता- निर्देशक- महेश भट्ट& मुकेश भट्ट 
कलाकार- विनोद खन्ना, मीनाक्षी शेषादरी,संगीता बिजलानी, महेश आनंद,शाफ़ि इनामदर 
 
 “जब कोई बात बिगड़ जाए, जब कोई मुश्किल पड़ जाए। तुम देना साथ मेरा ओ हमनवा” ।

आहा!! क्या गीत है, क्या बोल है, क्या आवाज़ है,और क्या बाखूबी फिल्मांकन किया गया है। पर जब ज़िक्र मेरे पसंदीदा गानों का होता है, तो मैं बिना गुनगुनाये रह नहीं पाती हूँ। और आज तो मैंने विषय ही यही चुना है।अब
तो गाने की चार लाइनें बनती हैं। सुर अगर इधर -उधर हो भी गए तो माफ करना।

फिल्म जुर्म  का ये गीत जो कि, 1990 में आया था, आज भी सुनकर ऐसा लगता है, मानो अभी -अभी सुना हो। मन करता है कितनी दफ़ा और सुन लूँ। आज मैं बात इस फिल्म की नहीं, बल्कि केवल और केवल इस गीत के विषय में करूंगी। फिल्म चर्चा फिर कभी और सही। आज सिर्फ गीत ,संगीत और इससे जुड़े कुछ क़िस्से , इसकी ख़ूबी , इसकी यादें, इस गीत के प्रति मेरे विचार, मेल खाते मेरे ख़याल , और कुछ चटपटी बातें।


इस गीत को पसंद करने के शायद हम सबके पास बहुत से कारण होंगे, और होने भी चाहिए। क्योंकि हर गीत के साथ किसी ना किसी की अपनी यादें जुड़ी होती हैं। इससे भी जुड़ी होंगी। अगर मैं अपनी बात करूँ तो, मेरे लिए ये गीत आज भी पुराने नग़मों में से मेरा पसंदीदा है। इसके बोल मुझे हर बार भावों से सराबोर कर देते हैं। मुझे मुझसे ही हर बार जोड़ देते हैं। मुझसे मेरे अपने कभी अगर रूठ जाएं तो, उन्हें मनाने में मेरा साथ निभाते हैं। फिर वो अपने चाहे परिवार हो, या यारी दोस्ती। कभी -कभी तो किसी से माफ़ी मांगने के लिए भी मैं इस गीत का इस्तेमाल करती हूँ। ऐसा लगता है मानों ‘इंदीवर साहब’ ने ये गीत केवल मेरे लिए ही लिखा हो। शायद ये सबके साथ होता होगा। खास तौर पर जो संगीत प्रेमी होगा, वही इसके बोल को समझ पाएगा।
इस गीत की शुरुआत होती है ‘संगीता बिजलानी’ और ‘शफ़ी ईनामदार’  की नोक झोंक के साथ, जिसमें विनोद खन्ना अपने दोस्त को इन शब्दों  के जरिए समझाते  हैं । और शफ़ी के साथ डांस करते -करते दोनों का हाथ एक दूसरे के हाथ में थमाकर ,उन दोनों को एक करने की कोशिश करते हैं। इसी बहाने अपनी  ख़्वाहिशें भी अपनी प्रियतमा तक पहुंचा ही देते हैं। फिर शुरू होती है प्यार की एक सुरमयी शाम। जो सबको ख़ुद के साथ जोड़ने में क़ामयाब होती है।  फिर  राजेश रौशन ने भी इसे सँवारने में कोई कसर नहीं छोड़ी। हर एक शब्द पर सटीक धुन बनाकर इसे सोने सा खरा बना दिया। आधा सुकून तो मन को शुरुआती संगीत सुनकर ही मिल जाता है। और फिर पहले अंतरे की शुरुवात में वो सीटी का हिस्सा, कसम से आनंद की चरम सीमा पर पहुंचा देती  है।

“जब तक हो चांदनी रात, देता है हर कोई साथ।  तुम मगर अंधेरों में, न छोड़ना मेरा हाथ”।

उफ़्फ़!  शब्दों का इतना ख़ूबसूरत घर मैंने आज तक नहीं देखा।  और कमाल तो तब हो गया, जब विनोद खन्ना साहब और खूबसूरत मीनाक्षी की अदाकारी ने इस  पर चार चाँद लगा दिए। क्या कमाल की अदायगी पेश की है दोनों ने। प्यार को ज़ाहिर करने का नया अंदाज़,  विनोद और मीनाक्षी के बीच प्यार का ये अंदाज़-ए-बयाँ, आज भी लाखों दिलों को इश्क़ के सागर में गोते लगाने के लिए काफी है। इशारों में ही दिल के जज़्बातों को कैसे ज़ाहिर करना है, ये हुनर ये दो कलाकार इस गीत के जरिए बतातें है। अगर मैं बात करूँ विनोद खन्ना और मीनाक्षी की जोड़ी की, तो दोनों ने साथ में 6 फिल्मों में काम किया है। “सत्यमेव जयते, क्षत्रिय,हमशक्ल, महादेव, जुर्म, पुलिस और मुजरिम”। और हर फिल्म में अपने हुनर को साबित किया है। इस फिल्म (जुर्म) और इस गीत दोनों ने 90  के दशक में काफी सुर्खियां बटोरी। हर किसी की जुबाँ उस वक़्त ये नगमा गुनगुनाया बग़ैर नहीं रह पाती थी। और आज भी जब पुराने गीतों का ज़िक्र होता है, तो ये गीत अपने शीर्ष पर होता है।

हालांकि ये गीत काफी पुरानी फेमस इंग्लिश गाने “500 Miles” का अनऑफिसियल रीमेक (अनौपचारिक पुननिर्माण) थी। पर इसके इस रूप ने  भी दर्शकों के दिलों  में अपनी अलग ही छाप बना डाली। सादगी, दोस्ती, रोमांस, जज़्बात हर एक पहलू से लबरेज है ये गीत। बेच-बीच में  ‘संगीता बीजलानी’ का वो मुंह बनाकर ‘शफ़ी ईनामदार’ को छेड़ना। माहोल को और भी हसीन कर देता है। प्यार की बाहों में खोए दो लोगों का मिलन, हाथों में हाथ लिए, उसपे थिरकते पैरों की ताल। कुछ ना कहकर भी बहुत कुछ कह जाती है।

“वफ़ादारी की वो क़समें, निभाएंगे हम तुम रस्में।  एक भी सांस ज़िन्दगी की, जब तक हो अपने बस में”।  
यहाँ तो  मीनाक्षी की आँखों में वो नज़ाकत ऐसी थी, मानों शर्म की लार ज़मीं पर टपककर, इस माहोल को और मदमस्त कर रही हो। क़समें वादों की साझेदारी से ज़िन्दगी को संवारने की ईच्छा ने, हर रिश्ते को और मज़बूती से बाँध कर अपने वश में कर दिया था । करे भी क्यों न, वो माहौल ही ऐसा था,  जिसमें हर कोई डूब जाना चाहता था। सही भी है, सामने अगर  विनोद खन्ना जैसे हैंडसम खड़े होकर, आँखों में मस्ती लिए, चेहरे  पर सादगी लिए, होंठों पर भरी मुस्कुराहट के साथ मुस्कुराये तो कौन कमब्ख़त दिल ख़ुद को संभालना चाहेगा।  मैं तो बिल्कुल भी नहीं. हहहह।  उनके चार्म ने लाखों दिलों को घायल करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

और फिर इसमें आवाज़ का तड़का डाला “कुमार सानू और साधना सरगम” जी ने । जिन्होंने इसका रूप ही संवार दिया। संगीत के साथ सुर का तालमेल ऐसा लगता है मानो, शब्दों ने शृंगार कर लिया हो। ‘कुमार सानू’  अपने रोमांटिक अंदाज के लिए मशहूर हैं। 90s  के  दशक का लगभग हर गीत उनके नाम है। और मखमली आवाज़ की धनी ‘साधना सरगम ‘ जी भी अपने अनोखे अंदाज के लिए जानी जाती हैं। हालांकि इस गीत में साधना जी का गाया एक ही अंतरा है। पर वही अंतरा मीनाक्षी के चुलबुले अंदाज को निखर कर बाहर आता है। और बीच -बीच में  डिम होती वो लाईटें, शाम को रंगीन करने में भरपूर योगदान दे रही थी। हर मायने में हर रूप में, इस गीत ने सुर्खियां बटोरने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

ये गीत निजी तौर पर भी मुझे बहुत पसंद है। और मेरे दिल के काफ़ी क़रीब भी है। क्योंकि इसी गाने से मेरी दो यादें जुड़ी हुई है। एक मेरे स्कूल टाइम की और दूसरी मेरे ऑफिस की। इस गीत के बोल जब भी मेरे कानों में सुनाई पड़ते हैं, यकायक मेरी यादें ताज़ा हो जाती है। वेसे भी फिल्मों और गीतों से मेरा याराना काफी पुराना है। क्योंकि ये शौक़ मुझे बचपन से ही रहा है। और आज भी बददस्तूर चलता ही आ रहा है। ये शौक़ केवल गाने सुनने तक का ही नहीं था। बल्कि खुद गुनगुनाने का भी था। और इतनी हद तक था कि, कोई गीत अगर मैंने कहीं सुन लिया, तो पूरे दिन वो मेरी ज़बान  पर ही रहता था। और मैं बिना गुनगुनाए रह नहीं पाती थी। फिर ना समय देखती ना माहोल। भले ही आराम से ही क्यों ना गुनगुनाऊँ । और आज भी यही हाल है। मेरे दिन की शुरुआत ही गानों से होती है, और रात भी। एक टाइम तो ऐसा था, जब पुराने और नए हर गानों की जानकारी (डिटेल्स) मुझे याद थी। तब मैं किसी म्यूजिक कंपनी में जॉब करती थी। और वहाँ मुझे रेडियों के लिए गानों का चयन करना पड़ता था। और रेडियो के लिए उनके विषय में लिखना होता था। रिकॉर्डिंग स्टूडियो था। तो कभी कबार गाने भी रिकार्ड कर लेती थी। एक बार ऐसे ही मस्ती के लिए मैं और मेरा एक कलीग (देव) हम दोनों रिकॉर्डिंग करने लगे। और यही गीत हमने रिकार्ड करने की सोची। देव ने अपना हिस्सा (पार्ट) तो गा लिया, मगर मेरी बारी में लाईट चली गई। फिर मैंने  बिना रिकॉर्डिंग के अपनी तसल्ली के लिए, अपना पार्ट गाया और सुना। ऐसे  मजेदार किस्से मेरी ज़िंदगी में होते रहे हैं। पर इस गीत से मेरी बारहवीं की याद भी जुड़ी है। जब मैंने अपने एन0 एस0 एस0  के कैंप में रात के संगीत माला प्रोग्राम में ये गीत सुनाया था। तब छोटे भी थे, तो गाने में थोड़ा डर  सा भी लगता था,  शर्म भी आती थी।  पर उस दिन बिना किसी रुकावट के मैंने ये पूरा गीत गाया। और सबने सराहना भी की।  इसलिए जब भी ये गीत सुनती हूँ। मुझे मेरा स्कूल टाइम याद आता है। जो कि, इस गीत की  ही तरह बेहद खूबसूरत हुआ करता था।

तो ये थी इस गीत से जुड़ी कहानी, इसके विषय में मेरे विचार, मेरे खयाल, मेरी यादें,  आपको कैसी लगी, मुझे जरूर बताइयेगा।  आपकी भी कुछ यादें जुड़ी होंगी इस गीत से या किसी दूसरे गीत से। मुझसे कमेन्ट के जरिये साझा कीजिये।  फिर उन्हीं गीतों की एक और कहानी आपसे मैं साझा करूंगी।

और हाँ ! एक बात और,  मैरे द्वारा लिखे गए हर कहानी, हर बात, हर जज़्बातों में, तुम देना साथ मेरा ओ हमनवा। 

About सुजाता देवराड़ी

सुजाता देवराड़ी मूलतः उत्तराखंड के चमोली जिला से हैं। सुजाता स्वतंत्र लेखन करती हैं। गढ़वाली, हिन्दी गीतों के बोल उन्होंने लिखे हैं। वह गायिका भी हैं और अब तक गढ़वाली, हिन्दी, जौनसारी भाषाओँ में उन्होंने गीतों को गाया है। सुजाता गुठलियाँ नाम से अपना एक ब्लॉग भी चलाती हैं।

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