सबूत (1980)

किरदार:
धर्मदास –  एक अमीर मिल मालिक
विकास (विनोद मेहरा)- धर्मदास का दामाद
इंस्पेक्टर आनन्द(नवीन निश्चल) –   विकास के बचपन का दोस्त
आशा (विद्या सिन्हा) – धर्मदास की बड़ी बेटी
काजल (काजल किरन)- धर्मदास की छोटी बेटी
रीटा (पद्मा खन्ना)- धर्मदास की टाइपिस्ट
अजित रॉय(ओम शिव पुरी) – धर्मदास का मुलाजिम
धनराज(प्रेम चोपड़ा) – एक और व्यापारी
मनमोहन सक्सेना(रूपेश कुमार) – सेक्रेटरी
अशोक गुप्ता(नरेंद्र नाथ ) – मैनेजर
दुखीराम (प्रेमनाथ) – हवलदार
सुखीराम (पेंटल) – हवलदार

निर्देशक – तुलसी रामसे, श्याम रामसे
संगीत- बप्पी लहरी

सबूत (1980) रामसे बंधुओं, तुलसी रामसे और श्याम श्याम रामसे,  द्वारा निर्देशित एक अच्छी मर्डर मिस्ट्री फिल्म है।  चूँकि रामसे बंधुओ की हॉरर विधा में रूचि रही है तो इस फिल्म में रहस्य के साथ हॉरर के तत्व भी देखे जा सकते है।

फिल्म की कहानी के केंद्र में सेठ धर्मदास हैं। सेठ धर्मदास की दो बेटियाँ हैं। उनकी बड़ी बेटी आशा के पति विकास की शादी, के कुछ दिनों बाद ही एक विमान दुर्घटना में मृत्यु हो जाती है। शादी के वक्त धर्मदास ने अपनी एक मिल विकास के नाम की थी लेकिन अब विकास की मृत्यु के बाद धर्मदास ही मिल को देख रहे हैं।

वहीं दूसरी तरफ सेठ धनराज धर्मदास से उसकी मिल खरीदना चाहता है। धर्मदास पहले तो इसके लिए तैयार हो जाते हैं लेकिन फिर उनका विचार बदल जाता है। वह अपने दामाद की आखिरी निशानी को गरीबों की सहायता के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं। पर धनराज के मन में चोर है और वह धर्मदास के विश्वासपात्रों को अपने साथ मिलाकर उनसे मिल के कागज पर दस्तखत करवा देता है,उनकी हत्या कर देता है और फिर उनकी लाश छुपा देता है। फिल्म के शुरू होने के बीस मिनटों में इतनी भूमिका सेट हो जाती है।

इसके बाद कहानी तीन साल आगे बढ़ती है। सभी की जिंदगी आगे बढ़ चुकी है। धर्मदास को गायब हुए तीन साल हो गये हैं। न उनकी लाश मिली है और न उनका कुछ पता चला है। सभी ने उन्हें मरा हुआ मान लिया है।धर्मदास बंगलों में अजित रॉय ने धर्मदास की लड़कियों के अभिभावक (गार्जियन) की भूमिका ले ली है। वहीं  आनन्द, जो विकास का बचपन का दोस्त था और पुलिस में इंस्पेक्टर है, मुंबई में स्थानांतरित होकर आ जाता है।

लेकिन फिर अचानक से हत्याएं होने लगती हैं। धर्मदास को मारने की साजिश में जो जो शामिल था उन्हें कोई एक एक करके मार रहा है। धर्मदास को जब मारा गया था तब अमावस की रात थी और यह हत्याएं भी अमावस की रात को ही होती है। हत्याओं के वक्त एक साया जो कि धर्मदास जैसा दिखता है हत्या होने की जगह पर देखा जा रहा है। यहाँ पर फिल्म एक मर्डर मिस्ट्री, थ्रिलर  और हॉरर का कॉकटेल बन जाती है। जिस तरह से फिल्म दर्शकों को दिखाई जाती है उससे खून का शक मुख्यतः  तीन किरदारों पर जाता है। इन तीन किरदारों में दो तो इंसान हैं और तीसरा धर्मदास का भूत है।

फिल्म आपको अंत तक बांध कर रखती है। कातिल कौन है यह जानने के लिए आप फिल्म देखते चले जाते हैं। संदिग्धों की हरकतों के चलते यह निर्धारित करना मुश्किल होता है कि असल में खूनी कौन है?

फिल्म में कॉमेडी के तत्व भी मौजूद हैं जो बीच बीच में गुदगुदाते हैं। प्रेमनाथ और पेंटल जहाँ मुख्य कॉमिक हैं वहीं प्रेम चोपड़ा विलन होते हुए भी कई बार हँसता है। आखिर के वक्त में प्रेम चोपड़ा के नौकर बने किरदारों ने भी अच्छी कॉमेडी की है।

फिल्म में गीतों की बात करूँ तो फिल्म में पाँच गीत हैं। एक गीत ‘जीना भी कोई जीना है, जब तक तेरा साथ रहे’ विनोद मेहरा और विद्या सिन्हा पर फिल्माया गया है। यह गीत कर्णप्रिय है। मुझे पसंद आया। आप इस गीत को बार बार गुनगुनाना चाहेंगे। दूसरा गीत ‘लूट अदा को लूट ले राजा’ एक आइटम सोंग की तरह है जो कि बार में हो रहा है। यह पद्मा खन्ना पर फिल्माया गया है।  तीसरा गीत ‘दूरियाँ सब मिटा दो’ रोमांटिक  है और नवीन निश्चल और काजल किरन पर फिल्माया गया है। चौथा गीत ‘लड़की हो लड़की जैसी हो चलेगी’ प्रेमनाथ और पेंटल पर फिल्माया गया है।  इसमें हास्य के तत्व है। पाँचवा गीत जीना भी कोई जीना है का सैड वर्शन है और वो भी मुझे  अच्छा लगा।

मुझे लगता है कि हॉरर या थ्रिलर फिल्मों में गीत न हो तो बेहतर होता है। गीतों के आने से फिल्म ने जो तनाव का माहौल बनाया होता है वो थोड़ा सा बिगड़ जाता है। मैंने भी इस फिल्म के पहले और पाँचवें  गीत को छोड़ बाकि तीनों गीतों फॉरवर्ड कर दिए थे क्योंकि मुझे जानना था कि कातिल कौन है। मुझे वह व्यवधान लगे थे। पाँचवा गीत कहानी के बैकग्राउंड में बजता है तो उसे फॉरवर्ड करने की जरूरत नहीं पड़ती है।

फिल्म की कहानी की कमी की बात करूँ तो वो इक्का दुक्का ही हैं।

फिल्म में  आनन्द और विकास बचपन के दोस्त हैं। उनकी मित्रता इतनी गहरी है कि आनन्द के घर में विकास की तस्वीर लगी हुई है। विकास की शादी होती है और शादी के कुछ दिन बाद विकास आनन्द से मिलने के लिए निकलता है और दुर्घटना में उसकी मृत्यु हो जाती है। हैरत की बात ये है कि आनन्द विकास की मातमपुर्सी में नहीं जाता है। फिर जब वो मुंबई आता है, जहाँ कि विकास रहा करता था, तो तीन साल बाद तक भी वो यह देखने नहीं जाता है कि उसके दोस्त के परिवार का क्या हाल हुआ है। उसकी नई नई ब्याहता बीवी का क्या हाल हुआ है? उसकी माँ उसे हिदायत देती है कि उसकी बीवी से मिलना लेकिन वह उस सलाह को भी नजरंदाज कर देता है। वो बस अपने दोस्त विकास की फोटो पर माला चढ़ाकर उसे अपने ड्राइंग रूम में लगा देता है।

हाँ, फिल्म में आनन्द को एक फ्रेम में यह कहते हुए दिखाया गया है कि वह खुद को विकास की मौत का जिम्मेदार मानता है। यह समझा जा सकता है लेकिन फिर भी उसका मिलने न जाना खटकता है।

फिल्म में एक और चीज है जो मुझे खटकी थी। फिल्म में एक जहाँ आशा को पता लगता है जिस आनंद का रिश्ता वो अपने बहन से करवाना चाहती है वो विकास का दोस्त है। उसने उससे विकास के निकलने से पहले बात की थी। वह विकास की हार लगी तस्वीर देखकर रोने लगती थी और बाकि के तीन लोग (आनन्द, आनन्द की माँ और काजल) उसे घेरे रहते हैं।  यहाँ मुझे लगा था कि आनन्द और आशा के बीच इस चीज को लेकर बात होगी कि वह क्यों नहीं इतने सालों से उन्हें मिला था। यह एक भावनात्मक सीन होता लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जैसे ही आनंद की माँ आशा के विषय में आंनद को बताती है कैमरा विकास की तस्वीर की तरफ मुड़ जाता है और फिर अगले फ्रेम में आनन्द धर्मदास की मौत की तहकीकात करते दिखता है। उस वक्त मैं यही सोचता रहा कि अगर मैं आनन्द की जगह होता तो कैसे उस परिस्थिति में प्रतिक्रिया देता।

फिल्म में कुछ चीजें ऐसी भी हैं जो कि आर्टिस्टिक लिबर्टी लगती हैं जिनके विषय में अगर न सोचो तो ही आप फिल्म का आनन्द ले पाएंगे। जैसे यह संयोग की विकास का दोस्त ही धर्मदास की मौत और उसके बाद होते कत्लों की तहकीकात कर रहा है। जो कत्ल हो रहे हैं उनका माहौल कातिल ने कैसे बनाया? ऐसा माहौल बनाने में तो मुझे बरसों लग जाएँ। फिल्म में धनराज को आखिर दिखता साया जिस तरह से इधर से उधर धनराज के आने से पहले पहुँचता है वह भी आपको आर्टिस्टिक लिबर्टी के तहत ही रखना होगा। इन सब बातों से  सीन ड्रामेटिक तो हुए हैं लेकिन लॉजिक खोजने जायेंगे तो शायद आपको वह न मिले।

अंत में यही कहूँगा कि सबूत एक अच्छी मिस्ट्री फिल्म। मैंने कुछ महीने पहले इसे देखा था और आज फिर दोबारा इसे देखा। मैंने तो इसका भरपूर लुत्फ़ लिया। आप भी हो सके तो एक बार देखिये। मुझे लगता है किस्मत के चलते नवीन निश्चल को वो कामयाबी नहीं मिल पाई जिसके वो हकदार थे।

फिल्म यूट्यूब पर मौजूद है और आप इसे उधर देख सकते हैं।

फिल्म का लिंक:

लेखक : विकास नैनवाल ‘अंजान’

© विकास नैनवाल ‘अंजान’

About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर उन्हें लिखना पसंद है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

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